निकली वो घर से
कॉलेज के लिए
थी रास्ते में
बजी सिटी
उड़ी फब्ती
नजर तक ना उठा सकी
चुनरी संभालती
तेज क़दमों से
पहुंची सिटी बस स्टैंड
एक कागज की पुड़िया
टकराई उस से
और गिरी पैरों में
डरते हुए उठाई
खुलते ही पुड़िया
माथे पर पडी सलवटें
सलवटों के बीच
छिपती बूंदे
पसीने की
कांपे हाथ
छूटी पुड़िया
फिर गिर पडी पैरों में
आई बस
लगी लाईन
चढ़ी वो बस में
पीछे से आता धक्का
वो सकुचा के रह जाती
हर बार कोई टकराता
घबरा के रह जाती
इसी बीच कोई हाथ
छू कर निकाल गया
पर ये वाकया
सिर्फ एक बार नहीं हुआ
वो सिमटती रही
सरकती रही
हाथ तो बदला
पर हरकत वही रही
रुकी बस
वो उतर
चली कॉलेज की ओर
कुछ कदम कर रहे थे
उसके कदमों का पीछा
फर्राटे से भागती एक बाइक
आया झपटा
जो ले उड़ा उसका दुपट्टा
किसी तरह हाल तक पहुंची
जहाँ मनाया जा रहा था
पर्व आजादी का...!
Tuesday, August 10, 2010
पर्व आजादी का
प्रस्तुतकर्ता Dimple Maheshwari पर 11:34 PM 101 टिप्पणियाँ
Subscribe to:
Posts (Atom)