Tuesday, August 10, 2010

पर्व आजादी का






निकली वो घर से
कॉलेज के लिए
थी रास्ते में
बजी सिटी
उड़ी फब्ती
नजर तक ना उठा सकी
चुनरी संभालती
तेज क़दमों से
पहुंची सिटी बस स्टैंड
एक कागज की पुड़िया
टकराई उस से
और गिरी पैरों में
डरते हुए उठाई
खुलते ही पुड़िया
माथे पर पडी सलवटें
सलवटों के बीच
छिपती बूंदे
पसीने की
कांपे हाथ
छूटी पुड़िया
फिर गिर पडी पैरों में
आई बस
लगी लाईन
चढ़ी वो बस में
पीछे से आता धक्का
वो सकुचा के रह जाती
हर बार कोई टकराता
घबरा के रह जाती
इसी बीच कोई हाथ
छू कर निकाल गया
पर ये वाकया
सिर्फ एक बार नहीं हुआ
वो सिमटती रही
सरकती रही
हाथ तो बदला
पर हरकत वही रही
रुकी बस
वो उतर
चली कॉलेज की ओर
कुछ कदम कर रहे थे
उसके कदमों का पीछा
फर्राटे से भागती एक बाइक
आया झपटा
जो ले उड़ा उसका दुपट्टा
किसी तरह हाल तक पहुंची
जहाँ मनाया जा रहा था
पर्व आजादी का...!